सोनपुर---छठ व्रत भगवान सूर्यदेव को समर्पित एक हिंदुऔं का विशेष लोक आस्था का महापर्व है। भगवान सूर्यदेव के शक्तियों के मुख्य स्त्रोत उनकी पत्नी उषा औऱ प्रत्यूषा है। यह पर्व उतर भारत के कई हिस्सों में खासकर यू.पी. झारखंड और बिहार में तो महापर्व के रुप में मानाया जाता है। प्रायः हिदुओं द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व के इस्लाम औऱ अन्य धर्मावलम्बी भी मनाते देखे गये हैं। नहाये खाये के साथ शुरू चार दिवसीय लोक आस्था का महापर्व छठ व्रत पूर्वांचल की धरती से निकलकर आज देश दुनिया में काफी लोकप्रिय लोक त्योवहार है। इस कठिन व्रत को करने से मनवांछित फल की प्राप्ति होती है। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत के करने से संतान व मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। इसमें प्रत्यक्ष रुप से भगवान सूर्य की आराधना करते है पहले शाम में प्रत्युषा को और सुबह में उषा को। सृष्टी की देवी प्रकृति नें खुद को छः भागों में बांट रखा है। इनके छठे अंश को मातृदेवी के रुप में पूजा जाता है। ये ब्रम्हा की मानस पुत्री हैं। छठ व्रत यानी इनकी पूजा कार्तिक मास में आमवस्या के दीपावली के छठे दिन मनाया जाता है इसलिए इसका नाम छठ पर्व पड़ गया। छठ व्रत में छठी माता की पूजा होती है और उनसे संतान व परिवार की रक्षा का वर मांगा जाता है। यह पर्व हर वर्ष चैत एवं कार्तिक महिने में मनाया जाता है जिसे क्रमशः चैती छठ एवं कार्तिकी छठ कहते हैं। कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष में दीवाली के चौथे दिन से शुरु होकर सातवें दिन तक कुल 4 दिनों तक मानाया जाता है। इसमें पहले दिन यानी चतुर्थी को घऱबार साफ सुथरा करके स्नान करने के बाद खाना में अरवा चावल तथा चने दाल तथा लौकी का सादा सब्जी बना कर खाया जाता है जिसे नहा खाये कहते है। अगले दिन संध्या में पंचमी के दिन खरना यानी गुड़ में चावल का खीर बनाया जाता है। उपले और आम के लकड़ी से मिट्टी के चूल्हें पर फिर सादे रोटी और केला के साथ छठ माई को याद करते हुए अग्रासन निकालने के बाद धूप हुमाद के साथ पूजा के बाद पहले व्रती खाती है फिर घर के अन्य सदस्य खाते हैं। इसी के साथ मां का आगमन हो जाता है। तत्पश्चात षष्टी के दिन घर में पवित्रता एवं शुद्धता के साथ उत्तम पकवान बनाये जाते हैं। संध्या के समय पकवानों व फलों को बाँस के बने सुप व दुउरा तथा छोटे टोकरियों में भरकर नदी, तालाब, सरोवर आदि के किनारे ले जाया जाता है।जिसे छठ घाट कहा जाता है। फिर व्रत करने वाले व्रतधारी उन डालों को उठाकर डूबते सूर्य(अस्ताचल) के समय सूरज की अंतिम किरण प्रत्यूषा को आर्घ्य देते हैं। ताकि जाते हुए माता सभी दुख दर्द लेती जाये और फिर सूर्यास्त के पश्चात लोग अपने-अपने घर आ जाते हैं। छठ व्रत के दौरान रात भर जागरण किया जाता है और सप्तमी के दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में पुन: संध्या काल की तरह डालों में पकवान, नारियल, केला, मिठाई भर कर नदी तट पर लोग जमा होते हैं। व्रत करने वाले सभी व्रतधारी को सुबह के समय उगते सूर्य (उदय़मान) की किरणें उषा को आर्घ्य देते हैं ताकि जीवन में नई उर्जा का पुनः संचार हो। इसमें अंकुरित चना हाथ में लेकर षष्ठीव्रत की कथा कही और सुनी जाती है। कथा के बाद छठ घाट पर प्रसाद वितरण किया जाता है और फिर सभी अपने-अपने घर लौट आते हैं तथा व्रत करने वाले इस दिन पारण करते हैं। यह क्रम खरना के दिन से व्रती लगातार 36 घंटे निर्जल एवं निराहार रहते हुए व्रत करती है। इसलिए इसे कठिनतम व्रत भी कहा गया है। बतादे कि व्रत की शुरुआत रामायण काल से हुई थी। लोक मान्यताओं के अनुसार इस व्रत को त्रेतायुग में माता सीता ने तथा द्वापर युग में पांडु की पत्नी कुन्ती ने की थी जिससे कर्ण के रुप में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। पांडव का वैभव एवं राजपाट छिन जाने पर भगवान कृष्ण के सलाह पर पांडव की पत्नी द्रौपदी ने भी इस व्रत को किया था जिससे पांडवो का खोया हुआ वैभव एवं राजपाट पुनः मिल गया था।हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भगवान सूर्य एक मात्र प्रत्यक्ष देवता हैं। वास्तव में इनकी रोशनी से ही प्रकृति में जीवन चक्र चलता है। इनकी किरणों से धरती में फल, फूल, अनाज उत्पन्न होता है । छठ पूजन कथानुसार छठ देवी भगवान सूर्यदेव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए भक्तगण भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी अन्य नदी या जल स्त्रोत के किनारे इस पूजा को मनाते हैं।